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Wednesday, July 9, 2014

दहेज़ उत्पीड़न और सास - बहू महाएपिसोड



 दहेज़ उत्पीड़न और सास - बहू महाएपिसोड

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बेटी है जान तो बहू है दुश्मन, सदियों से ऐसा क्यू चला आ रहा है हमारे भारतीय घर - समाज में, और यह बुराई सिर्फ और सिर्फ मध्यम वर्ग , उच्च मध्यम वर्ग  भारतीय परिवार में ही क्यों देखने को मिलती रही है ...?
क्या कभी हमने इसपर गौर करने की गरज समझी है की बेटी  क्यों माँ की जान होती है ? अपनी बेटी के ऊपर आया एक खरोच भी बर्दास्त नहीं कर पाती है जो माँ वह माँ अपनी बहू को बेटी का दर्ज़ा क्यों नहीं दे पाती, उसके अंतर में क्यों नहीं उमड़ता प्रेम का सैलाब बहू के प्रति भी उसी तरह जैसा प्रेम का सैलाब वह अपनी बेटी के लिए अपने अंतर में रखती है …?
आखिर एक माँ जब माँ से सास बनती है उसके भीतर पराई बेटी के लिए असंख्य कूवृत्ति, कुप्रवृत्ति क्यों जन्म ले लेती है ...?

बेटी और बेटे के प्रति एक सभ्य माँ आखिर बहू के प्रति असभ्य क्यों हो जाती है ! उसकी भाषा उसका ब्यवहार सबकुछ अमर्यादित और कुसंस्कारी क्यों हो जाता है अपनी बहू के प्रति ? उसकी सोच उसके विचार इतने हिंसक क्यों हो जाते है कि वह अपनी बहू क़ी जान ले लेती है या जान लेने पर उतारू हो जाती है ...?

बचपन से यह सब कुछ मैं भी अपने समाज में, अपने पास - पडोश में  घटते हुए देख रहा हूँ , और ऐसा भेद - भाव क्यों होता आ रहा है हमारे समाज में यह सोच कर अंदर ही अंदर घुट भी रहा हूँ !  प्रश्न जिसका उत्तर जानते हुए भी मैं नहीं जान पाया हूँ बचपन से लेकर अब तक वह यह क़ी आखिर क्यों ले लेती है एक सास अपनी बहू क़ी जान ? आखिर क्यों हो जाती है वह सास बनते ही उग्र और हिंसक ? क्या ऐसा कृत्य करते हुए उसकी आत्मा मर जाती है .? या कोई और वज़ह होती है इसके पीछे जिसके चलते वह यह प्रवृत्ति अपनाती है अपनी बहू के प्रति ! आखिर क्या है इस कुवृत्ति क़ी साइकोलॉजी...?

जहां तक मेरी सोच और समझ का सवाल है इस कुवृत्ति के लिए वह यह है की झूठे अंहकार, कुछ तुच्छ लालच, कुछ तुच्छ प्रलोभन के चलते और कुछ भेद भाव पूर्ण समाज एवमं परिवार में हुई परवरिश की वज़ह से आता है ऐसा परिवर्तन एक स्त्री के भीतर !
आज जब दहेज़ को लेकर सुप्रीम कोर्ट में थोड़ी हलचल हुई तो मुझे भी लगा इस कूवृत्ति, इस कूप्रथा पर मुझे भी मुखर होना चाहिए और बचपन से दबे अपने भीतर के कई प्रश्नो  पर अपना विचार रखना चाहिए !
भारतीय समाज मे फैली हुई बहुत सी बुराई  मे से एक बुराई ससुराल में बहू के साथ अत्याचार और उसका उत्पीडन भी है !
हडप्पा- मोहनजोडो  या उससे भी  पहले की बात करे तो पृथ्वी के निर्माण और मानव के विकास से ले कर अभी तक स्त्रियों को भोग और विलास  की वस्तु मात्र ही समझा गया है ! पुरुष  ने कभी स्त्री के लिए समानता का दर्ज़ा स्वीकार नहीं किया ! अपने भारतीय समाज में आज भी हम इसका उद्दाहरण देख सकते है ! क़ानून के दबाव में, और मज़बूरी के चलते भले ही आधी आबादी की पूरी भागीदारी की बात की जाती है पर अंदर का सच ये है की पुरुष का अंह आज भी इसे अपनी पूर्ण स्वीकारोक्ति नहीं प्रदान कर पाया है ! सृष्टि विकास के प्रथम चरण से ही पुरुष के लिए स्त्री वंश वृद्धि एवमं भोग विलास का साधन मात्र रही है ! मेरी बात से अगर किसी को गुरेज हो तो इतिहास के पन्नो में झाँक कर देख सकता है वह !
क्षेत्र  विस्तार, मान - सम्मान का भूखा पुरुष भोग के साधन के रूप में देखता रहा है स्त्री के स्तित्वा को ! हमारे समाज में ऐसा भेद भाव क्यों हुआ इसका मूल्यांकन होना चाहिए !
आखिर वर्तमान में भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है ! यहाँ के क़ानून, में यहाँ के सविधान में  महिलाओ को अलग से अधिकार दिया गया है  समानता का अधिकार ! किन्तु इस अधिकार को केवल कानूनी जामा पहना कर फाइलों और किताबों तक ही उनको सुरक्षित किया गया है ! सतही तौर पर आज भी स्त्री भेद -भाव की शिकार है !

प्राचीन समय से भारत दुनिया का ऐसा देश रहा है जिसकी पहचान उसकी समृद्ध संस्कृति, उसके समृद्ध संस्कार से कायम है ! जिसके आधार पर पूरा विश्व समुदाय भारत को जानता और पहचानता है ! किन्तु इस समृद्ध पहचान के साथ - साथ हमारे देश की आतंरिक कूवृत्ति भी है जिसे सिर्फ और सिर्फ मध्यम वर्ग, उच्च मध्यम वर्ग भारतीय परिवार ही समझ और झेल रहा है कई सदी से ! भारत में जहां बेटी को पूरा आदर और सम्मान हर घर मे दिया जाता है, वही बहूँ के साथ अत्याचार किया जाता है ! आखिर ऐसी कौन सी वज़ह है जिसके चलते यह प्रथा सदियों से चली आ रही है, और आज भी अपने विभत्स रूप में कायम है  !

कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे अपने अधिकारों के लिए भेद-भाव के चलते स्त्रियों में एक विशेष प्रकार की कुंठा ने घर कर लिया है ! जिसका  नग्न प्रदर्शन वह घर के अंदर करती है ! ऐसा लगता है पुरुष और समाज का एक विशेष हिस्सा स्त्रियों की इस कुंठा का गुलाम हो चूका हो ! और उस हिस्से पर केवल स्त्रियों की ही तानासाही चलती आ रही है ! यह तानासाही है चहारदीवारी के अंदर की तानासाही !
वह अपने कुंठित विचारो और छुद्र सोच की बन्दूक कभी बेटा तो कभी पति के कंधे पर रख कर चलाती रहती है !  सदियों से वह अपना अचूक निशाना भी लगा रही है ! कह सकते है इनके इस निशाने का कभी सही हल तो नहीं निकला किन्तु इनका वार कभी खाली भी नहीं गया ! जब यह अपना निशाना बहू पर लगा रही होती है तो ढाल के रूप मे जिस पुरुष का इस्तेमाल  करती है वह उन्ही का बेटा और पति होता है ! इस हिंसक खेल की सुरुआत घर की चहारदीवारी के भीतर से ही होती है ! वर्तमान में तो इसका रूप और विभत्स हो चूका है !  कलयुग के इस चरण मे जहा माँ और सास के मूल्यों में गिरावट आई है ! वही बहू भी दूध की धुली नहीं रह गई है ! एक बेटी बहू बनते ही बेटी के संस्कारों वाला लबादा उतार फेकती है और घर का आँगन तराईन का मैदान हो जाता है, और सास-बहू के रूप में दो योद्धा अपने हाथो में स्वार्थ , घृणा, द्वेष, अहंकार, हिंसा की तलवार लेकर आमने-सामने खड़े हो जाते है ! जहा एक तरफ बेटी की माँ, बहू की सास बनकर खड़ी होती है तो दूसरी तरफ किसी माँ की लाडली बेटी सास के प्रति नफरत, घृणा की आग में जलती हुई बहू बनकर खड़ी दिखाई देती है ! बहूँ बन कर किसी माँ की संस्कारी बेटी सास के प्रति वह सब कुछ कर गुज़रती है जो अपनी माँ के लिए बचपन से अबतक करने नहीं बल्कि सोचने में भी वह पाप समझती रही है ! माँ के समान सास के साथ उसकी बहू जाने क्यों हिंसक हो जाती है ...?

जिस माँ ने बेटे को पैदा किया, पाल-पोष कर उसे इस लायक बनाया की अब वो अपनी जिम्मेदारी उठा सके आज वो बेटा भी पत्नी का गुलाम हो गया ! पत्नी का ख़याल उसे इतना है की छोटी-छोटी बात पर पत्नी का मूंह देखता है और जिस माँ ने उसे दुनिया में ले आने का श्रेय लिया अपनी उस माँ को ही गलत कह कर  बार-बार उसका तिरस्कार करता है ! उस माँ को ही हज़ार स्वार्थी सवालों के कटघरे में मुज़रिम की भाति खड़ा करता है और पत्नी को ज़ज़ की भूमिका में रखकर बार बार उसका मूँह देखता है , उसके चेहरें पर बनता बिगड़ता भाव देखता है, मानो कोई छत पर खड़ा होकर बड़े उलझन के साथ बादलो के बीच लूका - छिपी करते हुए चाँद को देख रहा हो ! ऐसा करते हुए उसके मन में खुद के प्रति या तो तिरस्कार होता है या उसकी कोई बड़ी मजबूरी ! जो भी होता है, वह उसे दबाकर ही रखता है क्यों की या तो वह पत्नी का गुलाम बनकर माँ को कटघरे में खड़ा कर सकता है या फिर पत्नी को अनदेखा करके अपना सुख चैन गवा देने के खौफ में जीता है ! ऐसे में वह कभी माँ के साथ तो कभी पत्नी के साथ अत्त्याचार करने वाला प्राणी बनकर रह जाता है !

वही जहां सास का पलड़ा भारी होता है कहने का आसय यह की जिस घर में सास की हूकूमत चलती है वहां प्रायः सास - ससूर के बीच बेटे की शादी से पहले और शादी के बाद का पूरा समीकरण ही बदल जाता है और फिर हर बेटी बहूँ  बन कर प्रताड़ना , दहेज़ ना ले आने का तिरस्कार झेलती है ! नरक जैसी तकलीफ को ससूराल में आकर भोगती है ! एक बेटी की माँ सास बन कर जल्लाद बन जाती है !

आखिर जब एक स्त्री बहूँ से सास बनती है तो उसमे इतना परिवर्तन क्यों आता है…?
उसके लिए बेटी तो अपनी होती है, लेकिन बहूँ अपनी बेटी क्यों नहीं हो पाती ! आज जो सास है आखिर कल वह भी तो किसी की बेटी थी, किसी की बहू थी फिर सास बनते ही ये विकृत्ति उसके भीतर क्यों आ जाती है
....?
आखिर सास भी कभी बेटी थी, फिर  बहूँ बनी बहू से फिर सास बनी ! जब एक स्त्री अपने ३ महत्वपूर्ण  दायित्व को बखूबी निभा लेती है फिर चौथे दायित्व यानी सास के दायित्व के प्रति वह उदासीन,अहंकारी और असफल क्यों हो जाती है ! अपने सास की भूमिका के साथ वह न्याय क्यों नहीं कर पाती…?

आखिर सास भी कभी किसी की बेटी थी, फिर बहू बनी फिर माँ बनी ! और माँ बनने के बाद ही उसे बहूँ का सुख भी मिला ! फिर किसी और की बेटी जो एक दिन उसकी बहूँ बनकर उसके बेटे के पीछे - पीछे उसके पास उसके घर में आती है उस बहू के साथ सास के द्वारा प्रताड़ना जैसा अन्याय क्यों आखिर सास भी  कभी बहूँ थी किन्तु  खुद सास बनते ही वह इसे कैसे भूल जाती है ...?

क्या स्त्रियों ने खुद को खुद के प्रति कुंठित कर लिया है या वह पुरुषो को अपना गुलाम बनाने की कुंठित भावना से ग्रषित हो चुकी है जिसके चलते घर के चहारदिवारी के भीतर सदियों से उन्होंने अपनी एक रहस्यमई दुनिया बना रखी है ! एक ऐसी दुनिया जहां आकर बाहर तमाम तरह की घटनाओ को अंजाम देने वाला पुरुष भी उनका गुलाम बन जाता है !

लगातार हो रहे दहेज उत्पीडन को ले कर बहुओं को मारने - पीटने , जलाने तक के जितने भी मामले भारतीय मीडिया मे दिखाए जाते है, अथवा पुलिस की फाईलों में कैद होते है उसमे एक ही बात बार - बार सामने आती है कि सास ने फ्रीज के लिए , कूलर के लिया , एसी के लिया , कैश के लिया बहू को मारा-पीटा और अंत मे उसके ऊपर मिटटी का तेल डाल  कर आग लगा दी !

भारत में सालाना 8000  बहुओं  को दहेज के लिए जला कर या किसी अन्य प्रकार से मार दिया जाता है !
दूसरे शब्दों  मे कहे तो 8000 भावी सास कम हो जाती है क्यों कि भविष्य मे ये बहुए ही माँ बनती और फिर किसी ना किसी बहू की सास बन कर 10 मे से एक तो अपनी बहूँ को निपटा ही देती !
आंकड़े  सामने है हिसाब सामने है पर आज तक इस प्रश्न का उत्तर कभी सामने नहीं आया कि स्त्री इस प्रकार के कुंठा की आखिर शिकार क्यों है ...?
आखिर ये हो क्या रहा है और क्यों हो रहा है ...?

सास-बहू की घर-घर की इस कहानी में ऐसा नहीं है की  बहूँ रानी गूंगी और बहरी बनी रहती है, या गौ माता की तरह बिल्कूल शांत रहती है और सास ही ज़ुल्म की सौदागर होती है और अपनी बहू पर बेइंतहा जुल्म करती है ! सास बहू की इस कहानी में हमेसा ट्विस्ट होता है ! कहने का आसय यह की ताली  दोनों हाथों से बजाई जाती होगी तभी,  तो इतनी आवाज़ आती है की पुलिस को भी एफ०आई०आर०  फाइल  करते वक्त पडोसी गवाह के रूप मे मिल जाते है ! यह वही पडोसी होते है जो घटना से पूर्व लम्बे टाईम  से दोनों हाथों से बजाई जाने वाली सास - बहू ताली का भरपूर आनंद ले रहे होते है ! उन तालियों की आवाज़ सुन कर उन पडोसीयो ने हमेसा आनंद लेने तक खुद को सिमित रखा जो घटना के बाद चश्मदित गवाह बन जाते है !

मित्रो ये गवाह पडोसी भी अभी तक स्टेप बाई स्टेप अपने पड़ोस के घर में चल रहे सास-बहु महा एपिसोड का मज़ा ले रहे होते है और सिख रहे होते है सास-बहू ट्रिक पड़ोस के घर की तेज़ आवाज में चलने वाली सास बहू लड़ाई से की मेरी अपनी बहू भी क्या अच्छा लाई, क्या नहीं लाई, क्यों नहीं लायी और अपने घर में भी वही खेल शुरू कर देते है , यानी सास-बहू महा एपिसोड का एक और खेल.!

भारत के माध्यम वर्गीय परिवार के इस सास-बहू महा एपिसोड में एक और भी मुख्य पात्र होता है यानी सशूर जी इनकी भी अहम भूमिका होती है सास बहू कहानी घर - घर की रियल स्टोरी में ! बहू के ससूर यानी सास के पति, और बहू के पति के बाप की यानी ससूर जो घर के मुखिया, सास के गृहमंत्रालय के चलते-फिरते कर्मचारी और अपनी पत्नी के पल्लू से बधे चाबी के गुच्छे की अहम चाबी जिसका उपयोग पत्नी महोदया समय-समय पर अपने मनमुताबिक ताले में लगाकर करती है !

कह सकते है की घर के बाहर सामाजिक रूप से दबंग   ससूर नामक यह पात्र पुरानी कहावत पर आज भी खरा उतरता है यानी जोरू का गुलाम ! उसकी सारी दबंगई घर के बाहर चलती है, घर के भीतर वह सिर्फ जोरू का गुलाम होता है ! उसकी सारी सामाजिकता सारी दबंगई घर के भीतर धरी की धरी रह जाती है क्योंकि घर के भीतर योर एक्सीलेंसी की चलती है यानी पत्नी की ! दुनिया को अपने कदमो में झुकाने वाला यह पात्र योर एक्सीलेंसी के सामने आते ही उसके कदमो में सरेंडर कर देता है !


मेरे एक बहुत करीबी दोस्त का कहना है- ( दलाली करनी है तो घर से सुरु करो, वैसे ही दबंगई करनी है तो भी बाहर जाने की क्या जरुरत है ? या दबंगई करने के लिए हम बाहर क्यों जाये घर से ही शुरू करे ) !
यह उद्दाहरण मै इस लिए दे रहा हूँ क्यों की यही वो इगो है यही वो अहंकार है , यही वो नाकारात्मक सोच है जिसके चलते घर के भीतर भी बड़ी से बड़ी और क्रूर से क्रूर घटना को अंजाम दे दिया जाता है ! कभी यह घटना बहू की हत्या के रूप में होती है, कभी बूढ़े माँ बाप की हत्या या मार - पीट के रूप में होती है, तो कभी घर के आंगन में चहारदिवारी खड़ी कर देने के रूप में होती है, यानी ऐसी ही गलत भावना और नाकारात्मक सोच से सुरु होता है घर के भीतर का महाभारत !  यह सोच ही सास बहू- महा एपिसोड को बल देने में भी अपनी अहम भूमिका निभाती है !

सास ने हर साम ससूर का कान भरा क्यों की ससूर को सास की यह आदत प्रिय भी है और सास का प्रवचन सुनना उनकी मजबूरी भी है ! साथ ही हर साम बहू भी अपने पति यानी सास के बेटे का कान भरती है यानी बेटे ने अपनी पत्नी की कहानी सुनी पत्नी की जुबानी और ससूर ने अपनी पत्नी की डेली की कहानी उसकी ज़ुबानी सुनी ! अपनी-अपनी पत्नी की दिन भर की घर करकच की कहानी उनकी ही ज़ुबानी सुनकर बाप और बेटे का पौरुष जागा अपनी-अपनी पत्नी के हक़ में ! फिर सुरु हुआ घर में दबंगई के खेल का एक क्रूर और विभत्स नज़ारा ! बेटे ने उम्रदराज़ बाप के प्रति सम्मान की सीमा-रेखा लांघते हुए बाप को  10 गाली दी तो बहू ने भी इसमें जमकर पति का साथ दिया ! वही ससूर अगर कमाऊ और घर चलाने वाले है तो उन्होंने भी अपनी सीमा रेखा लांघी और बेटी समान बहू के प्रति अपनी जुबान गन्दी करने से कोई गुरेज़ या परहेज़ नहीं किया ! पतोहूँ को दे डाली एक से एक गाली बिना उसकी गलती पूछे बस सास ने जो कहा वही गीता के वचन हो गए ससूर जी के लिए ! एक बार भी पूछने की ज़हमत नहीं उठाया ससूर जी ने की आखिर बेटा बात क्या है ? आप ने अपनी माँ जैसी सास को क्यों दुखी परेसान या जलील कर रखा है ...?

सास-बहू कहानी घर-घर की इस घरेलु कहानी में अब आते है कहानी के तीसरे किरदार - पतोहूँ के आदमी मतलब ससूर जी के सर्वगुण संपन्न बेटा, सासु माँ के लाल, घर का छोटा दबंग, और फिर वही कहानी जोरू का गुलाम ! अब जब बाप ही यहाँ जोरू का गुलाम है तो जेनेटिक असर तो ज़रूर होगा ही यानी पिता जी के कुछ गुण बेटे मे आयेगे ही !

अब यहाँ बात कर रहा हूँ मैं दूसरे हाथ से बजने वाली ताली के बारे =
जैसे ही  रात मे बेचारा बेटा बच-बचा कर, छुप-छुपा कर बीबी के पास पहुँचा अंदर क्या हुआ होगा उसके साथ यह तो भगवान भी नहीं जनता लेकिन हाँ जब बाहर निकला तो पडोसी ज़रूर जान गए थे की आज 2 दबंद टकरा गए और हो गया घरेलू महाभरत ..!!

मित्रो इस सास-बहू महा एपिसोड में यहाँ जीत एक की ही होती है आप सभी को पता है किसकी...?

अगर बेटा नौकरी कर रहा है तो बेटे की और अगर बेटा नौकरी नहीं कर रहा है तो बाप की !
जब जीत बेटे की होती है तो जवान बेटे के द्वारा माँ - बाप के ऊपर हाथ उठाया जाता है !
और जब जीत बाप की होती है तो बाप की तरफ से बेटे को यह फरमान जारी किया जाता है =
( भाग जा मेरा घर छोड़ के जोरू का गुलाम, निखट्टू  साथ मे माँ भी अपने कटु शब्द उड़ेलने से गुरेज़ नहीं करती है और कहती है एक बाप की औलाद होगा तो जिंदगी भर अपना चेहरा मत दिखाना अब भला माँ से बेहतर उनके इस सवाल का जवाब किसके पास होगा या उन्हें उनके इस अटपटे सवाल का जवाब कौन दे सकता है ...? )
अब बेरोज़गार बेटे के ऊपर दोहरा दबाव बन जाता है  या तो वो अपनी बीबी को लेकर चुप-चाप चला जाए घर से या फिर मुह बंद कर के जीना सिख ले,या बीबी को छोड़ दे, या दूसरा रास्ता जिसका नाम दबंगई है अपना ले ! जिसके बारे में बाहर वाले तो नहीं जानते लेकिन घर के भीतर माँ - बाप के लिए जो माहौल बनता है वह यह की ना उगलते बनता है ना निगलते यानी बाप - बेटे, सास - बहू के बीच सुरु हो जाता है सांप - छछूंदर का खेल .....

क्योंकि अब बेटा घर के भीतर बुढे माँ - बाप पर अपनी ताकत और अपनी जवानी का जोश दिखायेगा वो भी बीबी के होश का प्रयोग करके , बीबी के कथनो पर अमल कर के !
वहीं बूढा बाप इस सास-बहू महाएपिसोड के इस कहानी में आये ट्विस्ट के आगे सरेंडर करके घर की बात बाहर ना जाए इस लिए ख़ामोशी की सरण में चला जाता है ! किन्तु घर करकच वैसे ही बरकरार रहता है जैसे इससे पहले था ! यानी समस्या वही पुरानी है वर्चस्व की लड़ाई ! ऐसे वर्चस्व की लड़ाई जहा ना मायावती है ना ही मुलायम और ना ही सत्ता की कुर्सी की लड़ाई ही है ! यह तो भारत के मध्यम वर्गीय समाज के घर- घर की कहानी है , इस कहानी में तो सिर्फ एक छोटा सा घर होता है  ऐसा घर जिसमे सत्ता में खेले जाने वाले खेल से भी क्रूर और गन्दा खेल खेला जाता है !
मित्रों  एक परिवार मे जब राजनीती इतनी गरम और हावी है तो  देश और प्रदेश को गलत और गन्दा बोलने वाले हम कौन है  ...?
सास-बहू महाएपिसोड के माध्यम से मित्रो इसी प्रकार मध्यम वर्गीय भारतीय परिवारो का मनोरंजन हुआ करता है !  इस सास बहू महाएपिसोड में अगर बात 7 साल तक सम्हल गई तो ठीक, वरना दहेज उत्त्पीडन  का केस फाइल हो जाता है ! और इसमें बहुत से और पत्रों की भूमिका भी सामने आती है वो पात्र जो अबतक परदे के पीछे थे पर अहम किरदार थे इस कहानी के ! जैसे देवर , ननद ,!

कई बार देखने  और सुनने मे आया है की बहू भी बहुत तेज होती है ! पढ़ी- लिखी तो आज भी सोच समझ कर टीवी सीरियल का अनुसरण करती है लेकिन देहाती - अनपढ़  टाइप की  हाई स्कूल पास या फ़ेल तो अपना तरीका वही गवई गन्दगी, और राजनीती ही पंसद  करती है !  वो अपने साथ एक जुमला रट के चलती है   ( तू पढ़े हाउ ता हम्हूँ लढ़े हई उहो तुहसे जादा....)!

लड़की के (घर) मायके वाले भी लगातार सिखाना-  पढाना और आग मे घी डालने काम करते रहते है !
और तो और अब तक बीच के सभी शादी राम घर जोड़े गायब हो गए है जो शादी  करवाते वक्त कहते है की शादी बियाह मे झूट न बोलो तो शादी कबो केहू के होबय न करे, एही खातिर दाल मे नमक बराबर झूट - झूट नहीं होवे..!  और दोनों तरफ नमक डाल - डाल कर पूरी दाल मे नमक ही नमक फैला देते है!
यानी  दाल इतनी नमकीन हो जाती है की गले के निचे उतारना मुस्किल हो जाता है !  इस नमक से अटी पड़ी हुई दाल को ज़िन्दगी भर पी-खा कर थूकना ही पड़ता है दोनों  परिवारों को !
और अंत मे वही कहानी कोर्ट कचहरी थाना अदालत और दहेज उत्पीडन !

सुप्रिम कोर्ट का कहना है दहेज उत्तपीड़न का गलत इस्तेमाल हो रहा है ! बहुत हद तक यह कथन सही भी है, दहेज़ के लिए बनाये गए क़ानून का बीते समय के कुछ एक वर्षो में गलत इस्तेमाल होता रहा है किन्तु हमे आंकड़ों को भी अहम साक्ष्य के रूप में लेने की जरुरत है ! यह जानने कि जरुरत है की अबतक भारत में दहेज़ उत्तपीड़न के जो मामले आये है उनमे से कितने मामले सही पाये गए और कितने गलत..?  अगर ऐसा होता है तो दहेज़ उत्पीड़न के सही मामलों की ही संख्या अधिक होगी ! अब जिसकी संख्या आंकड़ों में सत्य दिखाई दे उसपर ही क़ानून को केंद्रित होने कि जरुरत है ! हर मामले के दो पहलू होते है साकारात्मक और नाकारात्मक दहेज़ उत्पीड़न के साथ भी यही है ! एक-दो अपवाद अगर छोड़ दिया जाए तो सत्यता यही है की दहेज़ उत्पीड़न आज भी कायम है मध्यम वर्गीय भारतीय परिवारों में ! इन परिवारो की मानसिकता प्रायः जो देखने को मिलती है वह यह है की यह परिवार दहेज़ को अपनी आन - बान-शान से जोड़ कर देखता है !

आई०पी०सी० अंग्रेजो ने अपने फ़ायदे के लिए बनाया था ना की भारतीयों के लिया फिर भी वो दूरदर्शी थे और ऐसा नियम बना गए की समाज मे संतुलन बना रहे ! आज तक उन्ही के बनाये गए नियम का पालन हो रहा है इसमें किसी बदलाव की कोई ज़रूरत किसी को महसूस नहीं हुई अबतक ! और आज  जब सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर उंगली उठाई तो तमाम महिला संगठन जो खुद अत्याचार को बढावा देती है, कभी बहू बनकर तो कभी सास बन कर, या कभी महिलाओ के नामपर अपना एन०जी०ओ० चलाकर !

दहेज़ उत्पीड़न में अपना अहम योगदान देने वाली महिलाये ही सबसे ज्यादे चिल्लाती है की महिलओ के अधिकारों का हनन हो रहा है ! वह सायद यह भूल जाती है की दहेज उत्तपीड़न  किसी पुरुस द्वारा ही नहीं किया जाता बल्कि उनमे इन हल्ला मचाने वाली महिलाओं का ही अहम योगदान होता है !
हां पुरुष की मात्र इतनी गलती है की वो अपनी पत्नी  की बात मानता है ! या बेटा कभी अपनी पत्नी की या कभी अपनी माँ की बात मानता है तो ऐसे में सब को सजा क्यों सिर्फ सास को ही सजा क्यों नहीं या सिर्फ गलती करने वालो को ही सजा क्यों नहीं  …?
इस पहलू पर भी गहन चिंतन - मंथन होना ज़रूरी है ! फिलहाल यह कुरीति मध्यम वर्गीय या उच्च मध्यम वर्गीय भारतीय परिवार में ही क्यों ब्याप्त है इस पर भी एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन होना चाहिए !  क्यों की ना ही यह बुराई गरीब तबके के भारतीय परिवारों में दिखाई देती है ना ही अमीर परिवारों में, दोनों अपनी दुनिया में अपने - अपने हिसाब से व्यस्त है ! दहेज़ उत्तपीड़न की समस्या की जड़ सिर्फ मध्यम वर्गीय भारतीय परिवार से ही जुडी हुई है !

एक ओर जहां अमीर को दहेज की लालच ही नहीं क्यों की उसके पास धन दौलत इतना है की वह अपना ही पैसा स्विस बैंको में जमा कर रहा है  सेवी की नज़र से बचकर तो दूसरी तरफ गरीब भारतीय परिवार है एक ऐसा कुनबा जो जी तोड़ मेहनत कर के दो जून की रोटी कमाने में लगा है ! दहेज़ क्या है ..? दहेज़ उत्पीड़न क्या है ..?? इन सब से पूरी तरह अनजान !

अब कुल मिला कर बचे मिडील क्लास भारतीय परिवार जिसको बहूँ शब्द में ही दौलत की गठरी नज़र आती है ! कह सकते है जिन्हे बहू के नाम पर सिर्फ दहेज से मतलब है ! अपने सारे सपने अपनी सारी जरूरतें वह पूरा कर लेना चाहता है दहेज़ के पैसों से !

मध्यम वर्गीय भारतीय परिवार में अक्सर लोगो को यह कहते भी सुनता हूँ मैं की ( बेटे की बारात अपने पैसो से नहीं की जाती , बरात तो दहेज़ के ही पैसों से की जानी चाहिए ) उनके इस मानसिकता का खामियाज़ा कन्या पक्ष को भुगतना पड़ता है ! लड़के पक्ष की सानो-सौकत भी बनी रहे और समाज मे उनके रुतबे पर भी कोई आंच ना आने पाये ! लड़के वाले सोचते है करूँगा हर इंतज़ाम और सारे ठाट-बाट भी लेकिन इस इंतज़ाम और ठाट - बाट पर खर्च तो बेटीवाले का ही होगा ! इसके चलते दहेज़ लेने का प्रथम चरण सूरु होता है यानी बरीक्षा ( सगुन ) या तिलक जिसमे  सगुन के नाम पर लड़की पक्ष को लड़के वालों की तरफ से अपनी डिमांड लिस्ट पकड़ा दी जाती है और कैश के रूप में धन वसूल लिया जाता है ! यानी शादी की सारी तैयारी लड़की पक्ष के धन से की जाती है ! कही डिमांड की रकम से ज्यादे खर्च हो गया लड़के वालो से तो उनका मूह भी फूल जाता है और अगर शादी बीच वाले बेटे की या छोटे बेटे की हो रही है फिर तो पूछना ही क्या बड़े बेटे में मिले सामानो और पैसो की दुहाई दे देकर लड़की वालों से लम्बी वसूली की जाती है !

यानी मध्यम वर्गीय भारतीय परिवार में फैली यह समस्या सिर्फ संकीर्ण मानसिकता, झूठे दिखावे, झूठे  मान - सम्मान से जूडी है ! इसे ख़त्म करने के लिए  जितनी कानूनी कारवाई जरूरी है ! कानून का सख्त होना जितना जरूरी है कही उससे भी ज्यादे जरूरी है इसका मनोवैज्ञानिक अधययन भी ! क्यों की बिना मनोवैज्ञानिक अध्ययन किये हम इस तथ्य पर नहीं पहुँच सकते की आखिर दहेज़ प्रथा जैसी संकीर्ण और बड़ी समस्या को मध्यम वर्गीय भारतीय परिवार के बीच से ख़त्म कैसे किया जाए...?
इसे जड़ से कैसे उखाड़ कर फेंका जाए ...?

साइकलॉजिकल अध्ययन द्वारा यह भी पता लगाया जा सकता है की इसकी सुरुँआत आखिर कहा से हो रही है...? क्यों हो रही है ...? जब माँ एक  बेटी को जन्म देती है तो अपनी ममता का सागर उसपर उड़ेल देती है फिर वही माँ बहू को बेटी मानने से इंकार क्यों कर देती है ...?
 मध्यमवर्गीय भारतीय समाज मे दहेज़ के नाम पर जो कुछ भी बहू के साथ होता आ रहा है उसपर क़ानून का सिकंजा क्यों कमजोर पड़ता रहा है ...?
. सास नाम की एक स्त्री ही आखिर क्यों इतनी संकीर्ण सोच अख्तियार कर लेती है एक दूसरी स्त्री के प्रति जिसका उससे सास-बहू का रिस्ता होता है !
 आखिर कबतक कोर्ट की सरन में जाती रहेगी एक बहू की चीख -चीत्कार ...?
 आखिर कबतक सुबूतो के अभाव में खारिज किया जाता रहेगा सत्य को ...?
 आखिर कबतक कोर्ट सिर्फ गवाह और दलीले मागता रहेगा .और अपनी क्षमता पर ऊँगली उठाने का लोगो को औसर देता रहेगा …?
आखिर कबतक दहेज़ का दानव निगलता रहेगा निर्दोष  बहुओं को ...?
 आखिर कबतक दहेज़ उत्पीड़न केश फाईल होती रहेगी थाने में ...?
 आखिर कबतक सामाजिक दबाव और बदनामी के डर से बेटी पक्ष अपना कदम पीछे हटाता रहेगा ...? गुस्सा और अपमान का ज़हर पीकर अपना मूह बंद रखेगा ...?
आखिर थाने में पड़ी दहेज़ उत्पीड़न की फाईलों पर से कब हटेगी धूल...?
 आखिर कब एक माँ सास बनकर भी बहू के प्रति माँ जैसा आचरण अपनाएगी…?
 आखिर कब एक बेटी जब किसी की बहू बनेगी तो भी नहीं भूलेगी अपना दायित्व अपने संस्कार अपनी सास के प्रति और ससुरालपक्ष के प्रति ...?

इन सभी यक्ष प्रश्नो के जवाब के लिए मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार का मनोवैज्ञानिक अधययन भी जरूरी है ! उतना ही जरूरी जितना की दहेज़ उत्पीड़न कानून क्यों की बिना मनोवैज्ञानिक अध्ययन किये इस समस्या का हल संभव नहीं है, ना ही दहेज़ उत्पीड़न क़ानून ही कारगर साबित होगा !

द्वारा -

प्रदीप दुबे

Monday, July 7, 2014

क्या बहरा हुआ खुदा

क्या बहरा हुआ खुदा ..?
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मुरादाबाद के कांठ में शुक्रवार २७ जून २०१४ को जो कुछ घटा , धार्मिक स्थलों से जिस प्रकार लाउडस्पीकर हटाने को लेकर बवाल हुआ, ग्रामीणों  एवमं पुलिस के बीच जिस तरह का संघर्ष देखने को मिला, किसी एक धर्म के साथ होकर प्रदेश के मुखिया ने अन्य धर्मो के साथ जो राजनितिक छेड़ - छाड़ किया ! जनता की भावनाओ को जिस प्रकार आघात पहुचाया , धारा १४४ की स्थिति को जिस प्रकार उत्पन्न किया गया, वह एक दिन में किया गया फैसला नहीं था बल्कि रमज़ान के मद्दे नज़र राजनीतिक रोटी सेकने की के लिए सोची समझी नीति के तहत तैयार किया गया एक पुख्ता एजेंडा है ! प्रदेश सरकार क्या चाहती है नहीं पता, किन्तु जबसे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश में सत्ता सम्हाली है जनता परेशानियों, दंगे - फसाद की वज़ह से कराह रही है ! आम चुनाव में इतनी बड़ी सिकस्त पाने के बाद भी नहीं समझ आता यह समाजवादी पार्टी आखिर चाहती क्या है, आखिर अखिलेश यादव जी किसके हाथ की कठपुतली बने है की आये दिन एक के बाद एक जघंन्य और हिंसक घटनाएं प्रदेश में हो रही है और उसपर मुख्यमंत्री जी का कोई बस नहीं है !  हद्द तो अब हो गई है की मुख्यमंत्री जी के आदेश,फरमान, या यों कहे की गलत फैसलों की वज़ह से उत्तर प्रदेश का पश्चिमी वेल्ट दंगा -फसाद का घर हो गया है ! हिन्दू मुस्लिम को आपस में लड़ा कर अपनी कौन सी दूरदर्शी नीति का परिचय दे रहे है मुख्यमंत्री जी २७ जून को मुरादाबाद में हिंसा की आग लगी वह आग विभत्स रूप अख्तियार कर चुकी है आज की डेट में ! तो वही दूसरी हिंसा भड़क उठी है मेरठ में ! मेरठ शहर में सांप्रदायिक झड़पें थमने का नाम नहीं ले रही हैं। लालकुर्ती के जामुन मोहल्ले में हुई वारदात में अभी समझौते का दौर चल ही रहा था कि पूर्वा इलाही बख्श में शुक्रवार को दो समुदायों में जमकर पत्थर और तेजाब की बोतलें चलीं। छतों पर मोर्चाबंद लोगों के जबर्दस्त पथराव में दोनों समुदाय के पांच लोग घायल हो गए। हवाई फायरिंग की भी सूचनाएं हैं। मौके पर पहुंची कई थानों की पुलिस ने लाठी चार्ज कर लोगों को तितर-बितर कर हालात संभाले। बवाल के बाद पूरे इलाकों को फोर्स ने सील कर दिया है। पुलिस ने देर रात तीन युवकों को हिरासत में ले लिया है।   मेरठ की स्थिति आज की जो है उसे देखकर यही कहा जा सकता है मुख्यमंत्री जी पर कही ना कही तो जरूर आतंरिक दबाव है आज जिसके चलते वह प्रदेश को सेना की छावनी बनाने पर आमादा है ! मित्रो मै राजनितिक सोच से अपने को अलग रखकर दूर रखकर आज इस दंगो की वज़ह और दंगो पर मानवता की भाषा में आप को अपने विचारो से कुछ कहना और समझाना चाहता हूँ ! हो सकता है मेरा विचार कुछ लोगो को नागवार गुज़ारे पर मित्रो इस दंगे फसाद से हमारे प्रदेश को बचाने के लिए यह विचार व्यक्त करना आज मुझे सही लगा तो मै व्यक्त कर रहा हूँ ................................................. 
रमजान के मद्दे नज़र मंदिरो के उपर से साउंड सिस्टम और माइक हटवाने के पीछे उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जी की मंसा चाहे जो भी हो किन्तु मैं तो इसपर इतना ही कहूँगा की मंदिरो से माईक साउंड हटवाकर मुख्यमंत्री जी ने यह प्रूफ कर दिया की की हिदुओ के देवी देवता कान के बहरे नहीं है न ही अपने भक्तो की परेसानी और भक्ति जानने के लिए ऊँची आवाज़ में बजने वाले साउंड सिस्टम की ही ज़रूरत है उन्हें ! 

वह अल्लाह की तरह थोड़े है जिनको अपनी परेसानी अपनी भक्ति बताने और दिखाने के लिए हमारे मुस्लिम भाई सदियों से मस्जिद के उपर माइक बांधकर चिल्लाते आ रहे है ! मित्रो चिल्लाता वो है जिसकी आवाज नहीं सुनी जाती , चिल्लाता वो है जिसका कोई माई - बाप न हो ! चिल्लाता वो है जिसका मुखिया , जिसका रहनुमा,  जिसका खुदा बहरा हो गया हो !

 साउंड माईक की जरुरत उसे पड़ती है जिसके सुनाने की क्षमता कमजोर पड़ गई हो ! इस लिए मंदिरो से साउंड सिस्टम हटाने के लिए प्रदेश के आलाकमान के फरमान पर हिन्दू भाई आक्रोशित ना हो अपने बुद्धि कौशल का परिचय दे, अपनी हिन्दू संस्कृति और सभ्यता का परिचय दें और पीड़ित मुस्लिम भाईयों को रमजान के महीने में मस्जिद पर बधे माईक साउंड  से चिल्ला चिल्ला कर अपना दर्द अपने खुदा तक पहुचाने दें !

यकीन मानिए मित्रों उनके बहरे खुदा ने सदियों से ना उनका दुःख दर्द सुना है ना ही इस रमज़ान में ही सुनने वाला है क्यू की जिन्हे अपने खुदा के कान.पर भरोसा नहीं, जो अपने खुदा को बहरा मानकर अपनी आवाज़ चिल्लाकर माईक साउंड से उसतक पहुचाते है उस खुदा को भी ऐसे ढोंगियों के ढोंग पर यकीन नहीं ना ही इनकी कोई परवाह है, इसका प्रमाण है की लाख इनके चिल्लाने पर भी सदियों से खुदा इनकी आवाज़ ठुकरा रहा है और इन्हे बताने की कोशिश कर रहा है की - 
मैं बहरा नहीं हूँ, न ही तुम लोगो से दूर हूँ, मैं तो तुम सबके दिल में हूँ, अपना दिल.बड़ा करो मेरे नेक बन्दों मैं तुम्हारी आवाज़ तुम्हारे दुःख दर्द तुम्हारे खामोश रहने पर भी सुन लूंगा समझ लूँगा ! जबतक माईक साउंड लगाते रहोगे मुझे बहरा समझकर चिल्लाते रहोगे मैं कुछ नहीं सुन पाउँगा और आप दुनिया में सबसे पीड़ित, दुखी,परेसान, अशांत रहोगे !  सदियों पहले किसी संत ने क्या खूब कहा था मुस्लिमो की इस ढोंग विधा की भक्ति पर ! - 

((…कांकर-  पाथर जोड़ कर मस्जिद दिया बनाई
ता चढ़ मुल्ला बाग़ दें क्या बहरा हुआ खुदा ...? ))


नोट  :---( यह मेरी अपनी निजी सोच है इसे अन्यथा न ले बस समाज से कुरीतियों और अंध विश्वासो को उखाड़ फेंकने के लिए ये मेरा विचार है )) !

सादर -
प्रदीप दुबे