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Saturday, April 23, 2016

सृष्टी विकास कि मूल शक्ति प्रेम और प्रेम में नारी की भूमिका



सृष्टी विकास कि मूल शक्ति प्रेम है ! किन्तु छिछला या ओछा प्रेम नहीं वरन सात्विक प्रेम !
प्रेम बिना किसी विकार - विकृति के दो हृदयों का एक हो जाना है, जिसमे स्वार्थ और प्राप्ति की आकांछा नहीं होती ,केवल उत्सर्ग ही उत्सर्ग होता है ! प्रेम की गूढता -गम्भीरता हृदय के पुंछल तारो तक को स्पर्श करती है,  वीणा के तार की तरह झंकृत करने वाली होती है ! प्रेम धीरता - गम्भीरता के अटल -अकाय सागर की तरहहोता है, न की भोग - विलास का आधार मात्र ! प्रेम साधना के जगत में करुणा का नाम है क्योंकि प्रेम कीजितनी सुन्दर झांकी इस भाव - भूमि पर आकर चित्रित होती है उतनी सुन्दर झांकी मांसल प्रेम में नहींचित्रित होती है !
प्रेम सिर्फ नारी सौंदर्य में डूबने का नाम नहीं बल्कि मन को विशाल सौंदर्य लोक में उठा लेजाने का नाम है !
नवीनता के सृजन का नाम है ! व्यक्ति के जीवन में प्रेम का आना उसी प्रकार से है जैसे दुःख कीरातों के बीच से होकर सुख के नए प्रभात का, नए विहान का आना .!
......... इसी को कामायनी में जयशंकरप्रसाद जी ने कुछ इस तरह परिभाषित किया है -


.........दुःख की पिछली रजनी बीच -

   .....विकसता सुख का नवल प्रभात !! '


सच्चे प्रेम में वासना का स्थान नगण्य होता है ! इसमें आशक्ति या मोह की गंध नहीं होती, इसमें स्वार्थ कापुट भी नहीं जुड़ा होता , यह सदा चेतना के प्रकाश से प्रकाशित होता रहता है ! जब प्रेम कायिक और मांसलहो जाता है तब उसमे आशक्ति की गंध व्याप्त जाती है ! प्रेम अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष रूप में जानने का आधार है !

प्रेम में नारी की भूमिका चेतना रुपी प्रकाश पुंज की तरह होती है क्योंकि नारी में - सेवा, दया, दान, के महान गुण निहित होतें है, जिनके चलते वह अपना सबकुछ उत्सर्ग करने के लिएसदैव प्रस्तुत रहती है !
प्रेम की तीन सीढ़ियों - शक्ति , शील , तथा सौंदर्य को नारी ही तैयार करती है ! उसके लिए प्रेम में प्राप्ति कीआकांक्षा कम होती है , अपने प्रेम के प्रति केवल त्याग ही त्याग, केवल उत्सर्ग ही उत्सर्ग होता है ! -


        .... पागल रे ! वह मिलता है कब

        .... उसको तो देते ही है सब !!'


वस्तुतः नारी ह्रदय ही सच्चे प्रेम का सच्चा अधिकारी है ! वही प्रेम की वेदना को पूर्णतः अनुभव कर सकता है !
जहां पुरूष विजय तथा साम्राज्य का भूखा होता है,  वहीं नारी समर्पण की ! पुरुष लूटना चाहता है और स्त्री लुट जाना " इसीलिए प्रेम का प्रस्ताव सदैव नारी की ओर से होना चाहिए क्योंकि करुणा - कलित नारी अपने हृदय की तमाम निधियां - दया , सेवा , माया , ममता , मधुरिमा , आदिको निःस्वार्थ भाव से लुटा देती है !
प्रेम के लिए पुरुष द्वारा प्रस्ताव करना पतन की अवस्था का द्दोतक है ,जहां प्रेम के प्रति नारी का  दृष्टिकोण  कल्याणकारी होता  है वहीं पुरुष का  प्रेम के प्रति दृष्टिकोण मांसलऔर आसक्ति से परिपूर्ण होता है !
किसी स्त्री का प्रेम पाने के लिए पुरुष में पूर्णता की आवस्यकता होती है , कामुक या बिलासी बनाने की नहीं ,स्त्री ऐसे पुरुष की कल्पना करती है
प्रेम के लिए जिससे उसे सुरक्षा की अनुभूति हो कल्याण की अनुभूति हो किन्तु पुरुष इसके विपरीत सोचता है स्त्री केप्रति उसमे आसक्ति की भावना सन्निहित होती है मांसलता को वह महत्व देता है !
प्रेम का वास्तविकआधार संतति है जहां आत्मा के मिलन की प्राथमिकता होती है ! संतति वस्तुतः दो निराकार आत्माओं काचिरमिलित साकार रूप है ! प्रेम के चरम विकास की पूर्ण प्रतिमा है !

इसीलिए भारतीय संस्कृति में गृहस्थी की पूर्णता संतति में मानी गई है ! यूँ तो सभी रिश्तों का आधार ही प्रेम को माना गया है ! रिश्तों में अगर प्रेम न हो तो एक लम्बी दुरी तय करपाना असम्भव है ! प्रेम को ही श्रेष्ठ आधार बनाकर मानव जीवन में सभी आदर्श रिश्तों की नीव रखी गई है! रिश्तों में प्रेम दृढ और मजबूत नीव की तरह है जिस पर विकास और समृद्धि का विशाल भवन टिकता है !

किन्तु यह आदर्श प्रेम भी तबतक अधूरा है जबतक कि इसमें विशवास कि अहम् भूमिका नहीं होती !लेकिन ऐसा कब होता है , जब एक अगले के लिए सारी बिघन बाधा को पार करते हुए उसके साथनिःस्वार्थभाव से खड़ा रहे बिना शक किये बिना कुछ पूछे , वीणा किसी सवाल जवाब के और ऐसे आदर्श कीपहल भी स्त्री की तरफ से ही होती आई है अबतक ! प्रेम में विश्वास प्रेम की पराकाष्ठा है ! अगर प्रेम मेंविश्वास नहीं तो प्रेम अधूरा - अपरिभाषिक है ! सबरी जो की प्रभु राम के भक्ति में विह्वल होकर प्रभु रामके आने के इंतजार में अपने अंतर में युगों - युगों से दृढ प्रेम पाल रही थी ,
उसका वह प्रेम ऐसा - वैसा प्रेमनहीं था वरन पूरे विश्वास के साथ के साथ सबरी अपने अंतर में यह प्रेम पाल रही थी और जहां प्रेम मेंविश्वास अपनी पराकाष्ठा को छू लेता है वहां प्रेम अधूरा नहीं रहता अकेला नहीं रहता , सबरी को  प्रभु श्रीराम का दर्शन होना इसका ज्वलंत उद्दहरण है ! ऐसा उद्दहरण जहां पाप भी प्रेम में पुण्य बन गया जूठे बेरभी  प्रेम की  पवित्रता को छु लिए ! प्रेम में दृढ विश्वास ही वह आधार था जिसने माता सीता को रावण जैसेराक्षस के घेरे में भी सुरक्षित रखा और एक तिनके का ओट ही रावण की समस्त शक्तियों पर भारी पद गया,एक पुरुष के प्रति  प्रेम में विश्वाश का चरम रूप ही परिलक्षित होता है
जब राम के कहने से सीता अग्नि में प्रवेश करती है अपनी पवित्रता अपने धर्म को साबित करने के लिए और सीता के अग्नि में प्रवेश करने केक्षण ही राम की परिभाषा बदल गई समाज में राम के वकल रावण जैसे पापी को मारने वाले शक्तिशाली राम नहीं रह जाते बल्कि सीता की अग्नि परीक्षा लेने के बाद सीता की पवित्रता की वजह से दुनिया में मर्यादापुरुषोतम के नाम से विख्यात हो गए यानि प्रेम में जबतक सीता के जैसी  अग्नि परीक्षा देने का विश्वास नहीं होगा तब तक कोई राम मर्यादा पुरुषोतम नहीं हो सकता !
प्रेम में विश्वास की पराकाष्ठा ही थी कीउर्मिला चौदह वर्षों तक लक्ष्मण के आने के इंतज़ार में घर की देहरी पर खड़ी  ही  रह गई !

प्रेम में नारी का राधा रूप हों जाना ही सच्चा प्रेम है क्यों की राधा के प्रेम को ही केंद्र में रखकर कृष्णकर्मयोगी हुए वृंदावन से मथुरा तक कृष्ण के जाने की यात्रा प्रेम से कर्म की ओर कृष्ण का पदार्पण है औरइस कर्म क्षेत्र में उन्हें भेजने का काम राधा का सात्विक प्रेम करता है !

ऐसे तो प्रेम के सम्बन्ध में रीतिकाल के प्रसिद्ध कवी घनानंद ने कहा है -

.................... अति सूधो सनेह को मार्ग है

................. जहां नेकु सयानप बांक नहीं .!!"

अर्थात यह प्रेम का मार्ग बड़ा ही सरल और सीधा है यहाँ चतुरता नहीं चल सकती , किन्तु हम ध्यान दे तो पाएंगे की इस सरल और सीधे पथ पर  भी भटकने का संकट तब तक बना रहता है जबतक कि-
विश्वास का प्रकाश आगे बढ़कर हमारा मार्ग प्रकाशित नहीं कर देता ! प्रेम का मार्ग सरल और सीधा हैकिन्तु विश्वास के प्रकाश के अभाव में अस्पष्ट है , अंधकारपूर्ण है ! प्रेम में मंजिल तक पहुचने के लिए
विश्वास ही एकमात्र साधन है , क्यों कि प्रेम के पथ पर चलने का उद्देश्य थक कर बैठ जाना नहीं होता !

................. इस पथ का उद्देश्य नहीं है , श्रांत भवन में टिक रहना ..!

............... किन्तु चले जाना उस हद तक , जिसके आगे राह नहीं है !!"

प्रेम कहने -सुनने का विषय नहीं है , यह तो गार्हस्थ्य सुख का प्रधान साधन है ! प्रेम की पवित्र भूमि परआकर पाप भी पुण्य हो जाता है ! वेदना में मधुरता आ जाती है ! जीवन की पीड़ाएं फूलों सी हसने लगती है !
आत्मा में अमर ज्योतिं उत्पन्न हो जाती है ! चेतना में विस्फार आ जाता है ! जीवन में नवजागरण छाजाता है ! सर्वत्र शिवत्व का दर्शन होने लगता है ! अपने चारो ओर प्रेम आनंद का

अखंड लोक निर्मित करते हुए चलता है ! प्रेम जीवन की ज्योंति है ! प्रेम के बिना घर ऐसे है जैसे दीया बुझगया हो और अँधेरा घर ! प्रेम के बिना जीवन ऐसे है , जैसे वीणा के तार टूट गए हो और वीणा संगीत सेखाली संगीत से शुन्य हो गई हो ! प्रेम के बिना जीवन ऐसा है , जैसे वसंत ऋतू में वृक्ष तो हों किन्तु उनपरफूल न आये हों , फूलों ने आने से इनकार कर दीया हों ! और फलों के आने की उम्मीद भी ख़त्म हों चुकी हों !
प्रेम के बिना जीवन ठीक उसी प्रकार प्रतीत  होता है जैसे बाँझ वृक्ष ! त्याग और विश्वास की डालो परपल्वित - पुष्पित हुआ प्रेम जीवन को दिशा देता है रिश्तों के बीच की खाई को भरता है !
इसमें नारी  कीभूमिका नीव की ईंट की तरह होती है , जिसपर पुरुष के उन्नति , सम्मान , विकास , विस्तार और ख्यातिका विशाल भवन टिकता है


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सादर -

प्रदीप दुबे
7827773177