रेशम के धागों को जरी के डिजाइन मे मिला कर बुनाई से तैयार
होने वाली सुन्दर, चमकीली साड़ी को बनारसी रेशमी साड़ी के नाम से आज न केवल
पूरा भारत परिचित है बल्की रेशमी बनारसी साड़ियो की अच्छी खासी मांग विदेशों
मे भी है.!
अलग अलग रंग बिरंगी रेशमी धागों से नवरंग का समावेश आप सभी को
बनारसी साड़ी मे देखने को मिलता है, 6000 से जादा बुनकर बनारसी साड़ी के
उद्योग से मुगलों के जमाने से जुडे आ रहे है, एक तरह से ये इनका पुस्तैनी
काम है जिसे ये लोग बखूबी करते है.!
बनारसी साड़ी बनारस की पहचान बन चुकी है, जब भी कोई सैलानी
कभी बनारस घुमने गया उसे बनारस का पान, बाबा विश्वनाथ मंदिर और बनारसी साड़ी
ही सब से पहले लुभाती है! बिना बनारसी साड़ी की खरीदारी किये शायाद ही ऐसी
कोई महिला हो जो बनारस से वापस जाये! बनारसी साड़ी एक विशेष प्रकार की
साड़ी है जिसे विवाह आदि शुभ अवसरों पर स्त्रियाँ धारण करती हैं। लेकिन समय
के साथ बनारसी साड़ी ने भी अपने रंग रूप और भारीपन मे काफी बदलाव किया
है, उत्तर प्रदेश के कई जिलो मे बनारसी साड़ियाँ बनाई जाती हैं। जैसे -
चंदौली, बनारस, जौनपुर, आजमगढ़, मिर्जापुर और संत रविदासनगर, लेकिन
इसका कच्चा माल बनारस से ही जाता है, ये पारंपरिक काम सदियों से चला आ रहा
है और विश्वप्रसिद्ध है। कभी इसमें शुद्ध सोने की ज़री का प्रयोग होता
था, किंतु बढ़ती कीमत को देखते हुए नकली चमकदार ज़री का काम भी जोरों पर
चालू है। ये वस्त्र कला भारत मे मुग़ल बादशाह के अगमान के साथ ही आई और आज न
केवल बनारस मे बल्कि पूरे भारत मे बानारसी साड़ी का अपना एक अलग स्थान और
वैभव है .
*बनारसी साड़ी के प्रकार जैसे बूटी, बूटा, कोनिया, बेल, जाल और जंगला, झालर आदि है –---
*बूटी - बूटी छोटे-छोटे तस्वीरों की आकृति लिए हुए होता है।
इसके अलग-अलग पैटर्न दो या तीन रंगो के धागे की सहायता से बनाये जाते हैं
और यदि पाँच रंग के धागों का प्रयोग किया जाता है तो इसे पचरंगा (जामेवार)
कहा जाता है। यह बनारसी साड़ी के लिए प्रमुख आवश्यक तथा महत्वपूर्ण
डिजाइनों में से एक है।
*बूटा – जब बूटी की आकृति को बड़ा कर दिया जाता है तो इस
बढ़ी हुई आकृति को बूटा कहा जाता है। गोल्ड, सिल्वर या रेशमी धागे या इनके
मिश्रण से बूटा काढ़ा जाता है। बूटा साड़ी के बॉर्डर, पल्लु तथा आंचल में
काढ़ा जाता है
*कोनिया - जब एक खास प्रकार की (आकृति) के बूटे को बनारसी
वस्त्रों के कोने में काढ़ा जाता है तो उसे कोनिया कहते हैं। जिन वस्त्रों
में स्वर्ण तथा चाँदी के धागों का प्रयोग किया जाता है उन्हीं में कोनिया
को बनाया (काढ़ा) जाता है। यह एक पारम्परिक कला है।
*बेल - ज्यामितीय ढंग से सजाए गए डिज़ाइन होते हैं। इन्हें
क्षैतिज, आडे या टेड़े मेड़े तरीके से बनाया जाता है, कभी-कभी बूटियों को
इस तरह से सजाया जाता है कि वे पट्टी का रुप ले लें। बेल साडी के किनारे पर
लगती है और चार अंगुल में नापी जाती है।
*जाल और जंगला - जाल एक प्रकार का पैटर्न है, जिसके भीतर बूटी
बनाई जाती है तथा इसे जाल - जंगला कहते हैं। जंगला डिज़ाइन प्राकृतिक
तत्वों से काफी प्रभावित है। डिज़ाइन के लिए सुनहरी या चाँदी की ज़री का
प्रयोग होता है
*झालर - बॉर्डर के तुरंत बाद जहाँ कपड़े का मुख्य भाग जिसे
अंगना कहा जाता है की शुरुआत होती है वहाँ एक खास डिज़ाइन वस्त्र को और
अधिक अलंकृत करने के लिए दिया जाता है, जिसे झालर कहा जाता है। सामान्यतः
यह बॉर्डर के डिज़ाइन से रंग तथा मैटीरियल में मिलता होता है।
_______आदि
परौहा_______
#Adee Parauha