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Tuesday, September 2, 2014

पियक्कड़ काव्य



कभी इक्षा थी, सपना था की -
दारू  का  ग्लास  हो
पूरी  बोतल  पास  हो
ना  हो कोई आस - पास
बस  मैं होऊ और मेरे साथ
तनहा काली  रात  हो ..
अंधेरा हर  तरफ बस घुडप्प अँधेरा हो
कोई शोर नहीं बस एक  सन्नाटा हो ....
चारो तरफ अपना दौर चले ......
दुनिया जाए भाड़ में ....!!!

खुद  से  भी  खुद की हुई नहीं जब
कई  दिनों  तक  कोई बात
नशा रहा या घोर निराशा थी
नहीं पता क्या था वह
मेरे अंतर में ....
कबतक चला किसका दौर मुझपर
नहीं पता .......?

अब जब होश में आया हूँ
तो ऐसा लगता  है
अब मैं अकेला हूँ , बहुत  अकेला
आँखे तुमको ढूंढ रही है
मेरे जीवन मैखाने के साक़ी
फिर मैं पीना चाहू तुम्हारे हाथों
नव जीवन प्याला ऐ मेरे साक़ी ........!!
आओ पास मेरे
थामो फिर से हाथ मेरा
मुझको चलना है अब
साथ तुम्हारे जीवन पथ पर
दूर बहुत दूर तक ..
ऐ मेरे साक़ी ....!!

जीवन में तुम्हारी दस्तक के बाद
अब  तो  पीने  का भी मन नहीं
दुःख भी  खत्म  दर्द  भी
और इक्षा  भी  खत्म
2 पैग या
एक  ज़ाम  की हसरत भी
नहीं  रही ..
अब  ना मय भरी कोई ग्लास  हो
बोतल भी  ना  आस - पास  हो
बस  हर  पल  तुम  साथ  हो ..
बस तुम ही मेरे साथ हो मेरे साक़ी
यही  आखिरी इक्षा  सेष  बची  है ..
मेरे जीवन में -
बस तुम जीवन पथ पर
हरपल मेरे साथ हो और
मेरे जीवन मयखाने के मेरे साक़ी
बस तुम्हारे हाथों में
मेरे जीवन मय का ग्लास हो ...!!

सादर
 प्रदीप दुबे

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