( मन है पागल इतना क्यूँ ... )
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मन है पागल इतना क्यूँ
उड़ जाए -
मुझसे भी पहले उस लोक
जहां मैं जाना चाहूं !
नित छलता है -
यह छलिया मुझको
फिर भी मैं बांवरा -
पल - पल
क्षण - क्षण
संग इसके
क्यूँ छलना चाहू ....!
मधुर - मधुर है -
संग यात्रा इसके
पर देख सत्य के
नित नए स्वरुप को
सिहर - सिहर उठता मैं क्यूँ .... !
पल में दे देता
मुझको मन वह सबकुछ
जिसको पाना मुश्किल है
पर यह जग बैरी -
इतना कठोर हों जाता क्यूँ ...
सत्य धरातल इसका
इतना पथरीला क्यूँ ....... !
जग के आगे -
यह मन विवश हों जाता क्यूँ
मन के रथ पर-
बार - बार चढ़ना -
मुझको भाता क्यूँ .........
मन है -
पागल इतना क्यों ............. !!
द्वारा -
प्रदीप दुबे
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