Translate

Friday, February 14, 2014

 ( मन है पागल इतना क्यूँ ... )
 ===================

मन है पागल इतना क्यूँ  
उड़ जाए -
मुझसे भी पहले उस लोक 
जहां मैं जाना चाहूं   ! 
नित छलता है - 
यह छलिया मुझको 
फिर भी मैं बांवरा - 
पल - पल 
क्षण - क्षण 
संग इसके 
क्यूँ छलना चाहू ....! 
मधुर - मधुर है - 
संग यात्रा इसके 
पर देख सत्य के 
नित नए स्वरुप को 
सिहर - सिहर उठता  मैं क्यूँ  .... ! 
पल में दे देता 
मुझको मन वह सबकुछ 
जिसको पाना मुश्किल है 
पर यह जग बैरी - 
इतना कठोर हों जाता क्यूँ ...
सत्य धरातल इसका 
इतना पथरीला क्यूँ ....... ! 
जग के आगे - 
यह मन विवश हों जाता क्यूँ 
मन के रथ पर- 
 बार - बार चढ़ना - 
 मुझको भाता क्यूँ ......... 
मन है - 
पागल इतना क्यों ............. !! 

द्वारा - 
प्रदीप दुबे 

No comments:

Post a Comment